रायपुर। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सत्ता में आने से पूर्व चुनावों के दौरान ऐसे कई भाषण दिये और चुनावी वादे किये थे जो अव्याहारिक थे और जिसका एक मात्र उद्देश्य केवल सत्ता हासिल करना था । उन्होंने मुहल्ले के बाहुबलियों जैसा 56 इंची सीना वाला बयान दिया था जो लगातार मजाक का विषय बना रहा। हर खाते में 15 लाख आने की बात को तो उनके व्यक्तित्व के अटूट हिस्से अमित शाह ने जुमला बता कर दुहरे मजाक का विषय बना दिया और उनके हर वादे को जुमले होने या न होने से तौला जाने लगा। पाकिस्तान के सैनिकों के दस सिर लाने वाली शेखी और अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के वास्तविक दबाव में सम्भव सैनिक कार्यवाही में बहुत फर्क होता है जो प्रकट होकर मजाक बनता रहा।
इसी तरह के अन्य ढेर सारे बयान और वादों के बीच रोजगार पैदा करने वाली अर्थ व्यवस्था न बना पाने के कारण प्रति वर्ष दो करोड़ रोजगार देने के जुमले का भी जन्म हुआ, जिसे बाद में उन्होंने एक करोड़ कर दिया था और इस बजट में उसे सत्तर लाख तक ले आये। जब शिक्षित बेरोजगारों को नौकरी न मिलने से जनित असंतोष के व्यापक होते जाने की सूचनाएं उन तक पहुंचीं तो उन्होंने किसी भी मीडिया को साक्षात्कार न देने के संकल्प को बदलते हुए ऐसे चैनल से साक्षात्कार के बहाने अपने मन की बात कही जो उन्हीं के द्वारा बतायी जाने वाली बात को सवालों की तरह पूछने के लिए सहमत हो सकता था। इसमें उन्होंने रोजगार सम्बन्धी अपने वादे को सरकारी नौकरियों से अलग करते हुए कहा कि स्वरोजगार भी तो रोजगार है जैसे आपके टीवी चैनल के आगे पकौड़े की दुकान भी कोई खोलता है तो वह भी तो रोजगार है। उनके इस बयान को नौकरी की आस में मोदी-मोदी चिल्लाने वाले शिक्षित बेरोजगारों ने तो एक विश्वासघात की तरह लिया ही, सोशल मीडिया और विपक्ष ने भी खूब जम कर मजाक बनाया। यह मजाक अब न केवल सत्तारूढ दल को अपितु स्वयं मोदी-शाह जोड़ी को भी खूब अखर रहा है। सच तो यह है कि पकौड़े के रूप में जो कटाक्ष किये गये वे पकौड़े बेचने या उस जैसे दूसरे श्रमजीवी काम को निम्नतर मानने के कटाक्ष नहीं थे।
पकौड़े बेचने के लिए किसी भी बेरोजगार को मोदी सरकार की जरूरत नहीं थी।
देश के 60 प्रतिशत युवा ग्रैजुएट बेरोजगार हैं और हर साल हमारे काॅलेज और विश्वविद्यालय और अधिक लोगों को शिक्षित कर रहे हैं। यह युवाओं के लिए अच्छा समय नहीं है, क्योंकि भारत धीरे-धीरे सपनों के कब्रगाह में बदलता जा रहा है।
साल 2013 में मोदी जानते थे कि दो तिहाई भारतीय आबादी 35 साल से नीचे की है और उनकी ऊर्जा का उपयोग राष्ट्र निर्माण में किया जा सकता है। उन्होंने युवाओं की कुशलता में वृद्धि, रोजगार के अधिक अवसर पैदा करने का वायदा किया था और उनका कहना था कि इन सबसे भारत दुनिया में विकास के पावरहाउस के तौर पर उभरेगा। परिकल्पना तो बड़ी थी लेकिन कुछ साल बाद, 45 साल में सबसे अधिक बेरोजगारी होने की वजह से भारत को रोजगार के ख़्याल से भयावह दुःस्वप्न में डूबना पड़ रहा है।
स्थिति अब गंभीर संकट की तरह हो गई है, क्योंकि नौकरी, खास तौर से ग्रैजुएट कर चुके लोगों के मामलों में स्थिति निराशाजनक है। बाजार में मांग कम होती जा रही है इसलिए उत्पादन घटाना पड़ा है। रोजगार इसीलिए कम होते गए हैं। सेंटर फाॅर माॅनिटरिंग इंडियन इकोनाॅमी (सीएमआईई) द्वारा जुटाए गए नवीनतम आंकड़े बताते हैं कि शहरी बेरोजगारी अब 9 प्रतिशत तक पहुंच गई है और सबसे बुरी बात यह है कि 20 से 24 साल के आयु वर्ग में तीन में से सिर्फ दो लोग ही रोजगार पा रहे हैं। यह वह वर्ग है जो अपनी शिक्षा पूरी करता है और बाजार में नौकरी का इच्छुक होता है। आंकड़े संकेत देते हैं कि 30 साल से कम आयु वाले लोगों के लिए बेरोजगारी बनी हुई है और यह 2.5 प्रतिशत तक इसलिए गिर जाती है कि लोग ऐसा कोई भी रोजगार करने लगते हैं जिनसे उन्हें दो वक्त की रोटी किसी तरह मिलती रहे।
सीएमआईई के आंकड़े संकेत देते हैंः 20-24 साल के युवाओं ने 37 प्रतिशत की दर से बेरोजगार की बात कही, उनमें से ग्रैजुएट लोगों ने 60 प्रतिशत से अधिक बेरोजगारी दर की बात कही। साल 2019 के दौरान उनमें औसतन बेरोजगारी दर 63.4 प्रतिशत रही। पिछले तीन सालों के दौरान कभी भी रही औसतन बेरोजगारी दर में यह सबसे बुरी है। इस वर्ग के लोगों में 2016 में बेरोजगारी दर 47.1 फीसदी थी। साल 2017 में यह 42 प्रतिशत थी और 2018 में यह 55.1 फीसदी थी। इस तरह, युवा ग्रैजुएट्स के लिए 2019 में स्थिति बहुत ही बदतर हो गई।
सरकार ने पहले कहा कि रोजगार लायक बनने के लिए युवाओं की कुशलता बढ़ाए जाने की जरूरत है और मोदी के पहले कार्यकाल में यह प्रमुख रूप से केंद्रित क्षेत्र था। इसके लिए बनाई गई योजना ही विनाशकारी साबित हुई। सरकार के अपने आंकड़ों ने ही बताया कि इसने जिन लोगों को ट्रेनिंग दी, उनमें से आधे से भी कम ही लोग रोजगार पा सके। कुशलता विकास कार्यक्रमों में 34.17 लोगों ने पंजीकरण कराया जिनमें से 25.77 लाख लोगों को प्रमाण पत्र मिल पाए। इनमें से भी 14.20 लोग ही नौकरी पा सके और कितनी संख्या में लोग बेरोजगार रह गए, इसका आंकड़ा नहीं मिल पाया।
सरकार बेरोजगारी को लेकर नकारने में लगी है और वह यह संकेत देने के लिए कर्मचारी भविष्य निधि संगठन (ईपीएफओ) के आंकड़े का उपयोग करती है कि औपचारिक अर्थव्यवस्था में रोजगार पैदा हुए हैं। भारतीय स्टेट बैंक की एक रिपोर्ट संकेत देती है कि वर्तमान वित्त वर्ष की दूसरी तिमाही में मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र में नकारात्मक विकास दर के कारण इस साल तैयार किए गए वेतन भुगतान रजिस्टर में 74 लाख नए भुगतान रजिस्टर की संभावना क्षीण है, क्योंकि इनकी संख्या लगभग 16 लाख कम ही होने की आशंका है।
यह अब पूरी तरह तय हो चुका है कि सरकार 2019-20 में नई नौकरियां पैदा करने की अपनी कोशिशों में विफल रही है लेकिन उससे भी बड़ी दिक्कत यह है कि सामने आशा की कोई किरण भी नहीं दिख रही है। कम मांग की वजह से उद्योग में क्षमता उपयोग (कैपैसिटी यूटिलाइजेशन) अब गिरकर 69 प्रतिशत तक पहुंच गई है और इन स्तरों पर कंपनियों के लिए क्षमता विस्तार में इस तरह की बढ़ोतरी के लिए निवेश करना व्यापार की दृष्टि से उचित नहीं है, जो नई नौकरियां पैदा करे।
केंद्र सरकार के स्टार्ट-अप, स्किल इंडिया, आदि के प्रयोग भी विफल नज़र आ रहे। इसके उलट सत्तारूढ दल चुनावी सोच से आगे नहीं निकल पाता, मोदीजी हमेशा चुनावी मूड में रहते हैं जिसे अभी हाल ही में हमने कई चुनावी उद्बोधन में सुना। दावोस और बैंग्लुरु में तो वो बहुत ही गलत आंकड़े बोल गये जिससे पद की प्रतिष्ठा को ठेस पहुंची। केंद्र सरकार न सिर्फ जुमलों में रोज़गार बाटती नज़र आती है , अपितु सरकारी संस्थाओं के निजीकरण द्वारा देश के नौजवानों को रोजगार विमुख कर रही है। देश बेहाल, युवा बेरोज़गार , नौजवानों के साथ केवल वोट बैंक की राजनीति करने वाली मोदी सरकार, ने साबित कर दिया कि जुमलों में ही हो रहा देश का विकास ।